Tuesday, February 22, 2011



दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं
ज़ख़्म कैसे भी हों कुछ रोज़ में भर जाते हैं

रास्ता रोके खड़ी है यही उलझन कब से
कोई पूछे तो कहें क्या कि किधर जाते हैं

छत की कड़ियों से उतरते हैं मिरे ख़्वाब मगर
मेरी दीवारों से टकरा के बिखर जाते हैं

नर्म अल्फ़ाज़, भली बातें, मुहज़्ज़ब[1] लहजे
पहली बारिश ही में ये रंग उतर जाते हैं
Yesterday at 5:57am ·  · 

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